This Hindi poem delves into the profound meaning of the word “Khudgarz” (selfish). It explore the journey of self-discovery, where the poet embraces the label of selfishness, not as a flaw, but as a means to love oneself. Through dark alleys and misunderstood emotions, the poem reflects a transformation from seeking external validation to finding solace and completeness within.
KHUDGARZ
खुदगर्ज
कितना गहरा है ये लफ़्ज़
ऐसा लगता है, न जाने
कितनी तंग गलियाँ
सिमट सी गई हैं इस अल्फ़ाज़ में।
न जाने कितनी रौशनी को निगलकर
खुद को ज़िंदा किया है
इस अल्फ़ाज़ ने...
खुदगर्ज।
पहली बार तो सुना नहीं,
पहले भी सुना था।
वक्त बदले, हालात बदले,
पर ये लफ़्ज़ वही का वही रहा।
ये शायद पहचान बन गया है मेरी,
मेरे वजूद का नया पता है ये।
कोशिश तो की थी
इस तंग गली में अपना मकान न बनाऊं,
जहां रौशनी का पता नहीं,
उस गली में न जाऊं।
पर तुमने चुना उस गली को
मेरे लिए...
और अब मुझे वहां रहना पसंद है,
क्योंकि दिल को दर्द कम मिलता है यहां।
मुझे बार-बार
लफ़्ज़ों का मोहताज नहीं होना पड़ता
अपने जज़्बात को समझाने के लिए।
तुमने फिर से ग़लत समझा है मुझे,
ये बताने के लिए।
खुदगर्ज बनकर मैं खुद से मोहब्बत
करने लगी हूं...
वो मोहब्बत जो मुझे कभी
तुमसे न मिली।
Naseema Khatoon
HINDI POEM – KHUDGARZ
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